नारी विमर्श >> नारी तेरे रूप अनेक नारी तेरे रूप अनेकभगवती प्रसाद वाजपेयी
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‘नारी तेरे रूप अनेक’ एक आदर्शवादी उपन्यास है। इसमें सर्व धर्म समन्वय तथा जनसेवा का संदेश है।
‘नारी तेरे रूप अनेक’ एक आदर्शवादी उपन्यास है। इसमें
सर्व धर्म समन्वय तथा जनसेवा का संदेश है। कथा त्रिकोणात्मक है। इसमें दो
मुख्य नारी पात्र हैं–इरफ़ाना और लक्ष्मी। क्रमशः मुस्लिम और
हिन्दू स्त्रियाँ। दो मुख्य पुरुष पात्र हैं–विवेक और गोल्डी।
क्रमशः हिन्दू और ईसाई। इनका एक संकल्प है–जनसेवा। ये नारियाँ
कुमारी माताओं के गर्भस्थ शिशुओं की रक्षा/चिकित्सा व्यवस्था करती हैं और
वृद्धजनों के लिए ‘अपना घर’ की स्थापना करती हैं। ये
सोद्देश्य अभियान चलाती हैं–अन्तर्जातीय विवाह का और विजातीय
शिशुओं को गोद लेने का। वस्तुतः मानव-धर्म ही इनका सर्वस्व है।
नारी तेरे रूप अनेक
उत्तर प्रदेश में रामपुर नगर की तोपखाना रोड पर मुर्तुज़ा हाईस्कूल का
पुराना भवन अब शिक्षा विभाग के कई अधिकारियों का कार्यालय बन गया है। वैसे
तो लोक-निर्माण द्वारा उक्त विशाल भवन अप्रयोजनीय घोषित कर दिया गया है और
राहे-रज़ा के समीप नवीन भवन बनवाकर वहाँ विद्यालय स्थानान्तरित कर दिया
गया है तथापि पूराने भवन की विशालता और वर्तमान स्थान-संकट की समस्या को
देखते हुए उसके आधे भाग में शारीरिक प्रशिक्षण महाविद्यालय के
प्रशिक्षार्थियों का छात्रावास बना दिया गया है और शेष भाग में दो-तीन
जिलास्तरीय कार्यालय स्थापित कर दिए गए हैं। भवन के ऊपरी भाग में कुछ
अधिकारियों ने अपने अनधिकृत आवास बना रखे हैं। भवन के पूर्वी भाग में
पुराना उद्यान है, जिसमें दो कलमी आम के पेड़ लगे हुए हैं और बीच में एक
टूटा-फूटा फव्वारा बना हुआ है, जिसके बाहर चारों ओर बड़ी-बड़ी घास निकल आई
है और जिसमें यदा-कदा नाग-देवता अपना दर्शन देने प्रकट हो जाते हैं।
उद्यान के तीन ओर छोटे-छोटे कमरे बने हुए हैं जिनमें कार्यालयों का
टूटा-फूटा फर्नीचर और स्कूलों में वितरित किए जाने वाले दूध के खाली
डिब्बे वर्षों से बन्द पड़े हुए हैं। कमरों के अन्दर से वैसी ही दुर्गन्ध
निकलती रहती है जैसी लखनऊ के बड़े इमाम-बाड़े के बड़े हाल से अथवा
भूल-भुलैया के अन्दर जाने वाले रास्ते के दाहिने-बाएँ बने दरवाज़ों से।
यदाकदा सरकारी अनुदान से इस भवन की थोड़ी-बहुत मरम्मत करा दी जाती है और कमरों के फर्श और दीवालों के प्लास्टर को कामचलाऊ कर दिया जाता है, तथापि इसमें लगे लकड़ी के सारे दरवाज़े व खिड़कियाँ बेकार हो गए हैं जो मुश्किल से बन्द किए जाते हैं और मुश्किल से ही खोले जाते हैं।
भवन के निचले हिस्से में कार्यालय के कर्मचारियों व दैनिक आगन्तुकों के कारण दिन-भर भीड़ लगी रहती है, पर सायंकाल होते ही एक अजीब मरघटी सन्नाटा सारे भवन में छा जाता है। जाड़ों की शाम का तो पूछना ही क्या। इधर ऑफिस बन्द हुए, उधर छोटेलाल चौकीदार ने ताला-कुंजी लगा दी और बीच के लम्बे-चौड़े खुले आँगन में आग जलाकर हाथ सेकने बैठ, गया, दूसरे चौकीदार जाहिद को बुलाकर अपने पास बिठला लिया और साथ में ही भवन के बाहर जाने के लिए जो एकमात्र सँकरा रास्ता बना हुआ है, उसमें लगे पुराने दरवाज़ों को अन्दर से बन्द करके कुंडी में ताला डाल दिया। शाम के बाद यहाँ आता ही कौन है ! छत के ऊपर जो दो-तीन शिक्षा अधिकारी रहते हैं, वे सभी अकेले रहते हैं और परिवार से दूर होने के कारण वे भी शाम को जल्दी ही अपने-अपने कमरों में सिमट जाते हैं
आँगन के उत्तरी भाग में ऊपर जाने के लिए एक बड़ा ज़ीना बना हुआ है, जो थोड़ी सीढ़ियाँ चढ़ लेने के बाद दो ओर अलग-अलग बँट जाता है।
इसी ज़ीने से नीचे उतरता हुआ विवेक आँगन में आकर रुक गया, फिर कुछ सोचता हुआ अपनी कुंजी के गुच्छे को दाहिने हाथ की तर्जनी में नचाता हुआ बोला, ‘‘चौकीदार, इधर आओ, यह लो मेरे कमरों की चाभियों का गुच्छा, इसे अपने पास रख लो, मैं ज़रा खण्डेलवाल जी के घर जा रहा हूँ। वहाँ चाय पीकर सिनेमा देखने चला जाऊँगा। टेलीफोन कमरे के बाहर ही रखा हुआ है, अगर घण्टी बजे तो सुन लेना और बतला देना कि मैं देर में लौटूँगा। अगर लखनऊ से कोई फोन आ जाए तो सारी मैसेज नोट कर लेना, यानी किसका फोन है और मेरे लिए क्या सूचना दी जा रही है, हो सकता है कि मेरे सिरफिरे डायरेक्टर अपनी आदत मुताबिक रोज़ की तरह कुछ फालतू फण्ड की खबर देना चाहें।’’
यह कहकर विवेक ने अपने दस्ताने पहन लिए और तेज़ कदमों से बाहर निकल गया। छोटेलाल न द़रवाज़ा बन्द कर लिया और आग के पास आराम से बैठकर अपनी अधजली बीड़ी को पुनः सुलगा लिया और कहने लगा, ‘‘जाहिद भाई, इन अफ़सरों की माया निराली है। सबेरे छड़ी लेकर टहलने निकल जाएँगे, दिनभर या तो दौरा करेंगे या दफ्तर में बैठकर डाँट-फटकार लगाएँगे और फिर शाम को इधर-उधर कहीं चाय पीने और दावत खाने चले जाएँगे। यह नहीं कि अपने कमरे में चुपचाप बैठकर आराम करें और दिन-भर की अपनी थकान दूर करें। अब इन्हीं इंस्पेक्टर साहब को देखो, यह रात को दस बजे तक लौटेंगे, तब तुमसे चाय बनवाएँगे। चाय पीते ही तुम्हें बाज़ार भेजकर चार मीनार सिगरेट की डिब्बी मँगवाएँगे और फिर ग्यारह बजे रात तक टी. वी. देखते रहेंगे। यानी दफ्तर की चौकीदारी का मतलब यह भी है कि साहब लोगों के जा-बेजा सारे हुक्म तामील करते रहो।’’
यह सब सुनते हुए भी जाहिद मुस्कुराता रहा और केवल इतना बोला, ‘‘कुछ भी हो, मौजूदा इंस्पेक्टर साहब नेक-दिल इन्सान हैं, गरीबों पर मेहरबान हैं, छोटे-बड़े–सभी से इन्सानी सलूक बरतते हैं, ऐसे अफ़सरान मुश्किल से मिलते हैं।’’
अभी दोनों चौकीदारों की बातचीत का दौर शुरू ही हुआ था, कि बाहर से किसी ने कॉल-बेल बजा दी। छोटेलाल एक हाथ में अपना बल्लम थामे हुए व दूसरे हाथ में टॉर्च लिए हुए दरवाज़े पर पहुँच गया, किवाड़ खोले और बाहर बुर्का पहने हुए एक नवयुवती को देखा, फिर पूछा, ‘‘क्या बात है ?’’ ‘‘मुझे इंस्पेक्टर साहब से मिलना है’’ उसने उत्तर दिया। ‘‘अब दफ्तर बन्द हो गया है, कल आइएगा, इंस्पेक्टर साहब टहलने गए हैं, दस बजे रात तक लौटेंगे।’’ छोटेलाल ने उत्तर दिया। नवयुवती ने अपनी बात जारी रखी, ‘‘ठीक है, मैं जानती हूँ कि दफ्तर बन्द हो गया है और तुम इस समय चौकीदारी कर रहे हो, पर मुझे जरूरी काम से इंस्पेक्टर साहब से मिलना है। मैं लखनऊ से आ रही हूँ। मेरी ट्रेन लेट हो गई है, बड़ी मुश्किल से पूछते-पाछते यहाँ तक आ सकी हूँ। अगर ट्रेन अपने नियत समय से आ जाती तो मैं ऑफिस टाइम में ही उनसे मिलकर लखनऊ वापस चली जाती। मेरा यहाँ पर अपना कोई नहीं है, मेरे लिए रामपुर बिल्कुल अजनबी जगह है। दूसरे, तुम्हारे साहब के साथ हमारे घरेलू ताल्लुक़ात हैं। ऐसी हालत में तुम उनके दफ्तर का कमरा खोल दो, मैं वहीं बैठकर उनके लौटने का इन्तजार करूँगी, उनसे मिलकर बहुत ज़रूरी बात करूँगी और फिर रात में ठहरकर सवेरे की पहली ट्रेन से लखनऊ लौट जाऊँगी।’’ उक्त बुर्काधारी नवयुवती ने अपना चेहरा बेनकाब करते हुए बड़ी याचनापूर्ण दृष्टि से छोटेलाल की ओर देखा।
छोटेलाल की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था, वह किंकर्तव्यविमूढ़ था। कभी वह सोचता कि उस महिला को बैरंग वापस कर दिया जाए और फिर फौरन सोचने लगता कि अब अँधेरा होने लगा है, रामपुर की सूनी सड़कों पर उसे वापस कर देना किसी अनिष्ट का कारण न बन बैठे। वह पीछे लौट गया और जाहिद को अपने साथ बाहरी दरवाज़े तक बुला लाया। जाहिद को देखते ही उस नवयुवती ने उससे भी अपनी बातें दुहरा दीं।
जाहिद वयोवृद्ध और दुनिया देखा इन्सान था, उसने प्रश्न किया, ‘‘मोहतरमा, आपका नाम क्या है ?’’
‘‘इरफ़ाना।’’
‘‘ठीक है, आप अन्दर तशरीफ़ ले आइए, मैं साहब के ऑफिस के कमरे को खोलकर आपको बिठलाए दे रहा हूँ, आइए, मेरे साथ बेफिक्र होकर चली आइए।’’ जाहिद ने इंस्पेक्टर साहब का कमरा खोल दिया, मर्करी लाइट जला दी, हीटर भी लगा दिया। साहब की कुर्सी के सामने रखी हुई कुर्सियों में से बीच की कुर्सी पर बिठला, दिया, छोटेलाल को पैसे एक छोटी केतली में चाय व दो छोटे बिस्कुट मँगवाकर इरफ़ाना के सामने शिष्टाचारपूर्वक पेश करते हुए कहा, ‘‘आप चाय पीजिए, मैं फोन करके साहब को बुलवाए देता हूँ।’’ जाहिद ने खण्डेलवाल साहब के घर फोन मिलाया, संयोग से इंस्पेक्टर साहब ने रिसीबर स्वयं उठा लिया। जाहिद ने उनसे सारी स्थिति बतला दी। अभी-अभी चाय खत्म हुई थी और वह स्वयं अपने आवास पर लौटने का मूड बना रहे थे। रामपुर में जाड़ों की शाम काफी ठण्डी होती है, कभी-कभी तो ठण्डी हवा की लहर-सी आ जाती है। सभी रिक्शेवाले कानों में मफलर बाँधते व हाथों में दस्ताने पहने रहते हैं। ऑफिसर्स भी संकोचपूर्वक मफलर का प्रयोग कर लेते हैं, वे दस्ताने भले न पहनें। इंस्पेक्टर साहब ने अपनी पूरी आस्तीन का नया पुलोवर कमर से नीचे की ओर खींचा, कानों में घर का बुना नया मफलर लपेटा और खण्डेलवाल साहब से अनुमति लेकर रिक्शे पर बैठकर तोपखाना रोड के लिए वे चल पड़े। पुराने मुर्तजा स्कूल के फाटक पर उतरकर अपने ऑफिस के अन्दर चलने लगे। जाहिद बाहरी दरवाज़े पर ही खड़ा उनके लौटने की प्रतीक्षा आतुरतापूर्वक कर रहा था। इंस्पेक्टर साहब ने अपने ऑफिस रूम की लाइट जलती देखी, तो जाहिद से इसका कारण ज्ञात किया और फिर तुरन्त अन्दर जाकर अपनी चेयर पर बैठते हुए जाहिद से कहा कि तुम भी यहीं पर खड़े रहो। उन्होंने इरफ़ाना को देखा और आश्चर्य-मिश्रित कौतूहल से प्रश्न किया–
‘‘अरे इरफ़ाना ! तुम इस समय लखनऊ से बेवक्त कैसे आ गई ? घर में सब ठीक तो हैं ? तुम्हारे साथ में कौन आया है ? तुमने यहाँ यह चाय अपने पैसों से क्यों मँगाई है ? तुमने अपने आने की सूचना फोन द्वारा क्यों नहीं दी ? मैं तुम्हारे लिए रेलवे स्टेशन पर गाड़ी भेज देता। तुम्हें स्टेशन से तोपखाना रोड तक आने में काफी परेशानी झेलनी पड़ी होगी। तुम्हें मेरे ऑफिस का पता कैसे ज्ञात हुआ ?’’
इरफ़ाना ने अपने चेहरे से नकाब फिर से हटाई, विवेक की ओर आत्मीयता की दृष्टि डालते हुए अस्फुट स्वरों में बोली, ‘इस बार मेरा सी. पी. एम. टी. में चयन हो गया है। मुझे मेरठ मेडिकल कॉलेज में प्रवेश प्राप्त करना है। लखनऊ या कानपुर मिल जाता तो सारी परेशानियाँ अपने आप खत्म हो जाती। कल के अखबारों में रिज़ल्ट निकला है, आप जानते ही होंगे कि पहले की सी. पी. एम. टी. परीक्षाएँ निरस्त कर दी गई थीं, कुछ केन्द्रों पर पेपर्स आउट हो गए थे। दुबारा परीक्षाएँ हुई, इतना समय लग गया, अब नवम्बर का अन्तिम सप्ताह भी समाप्त हो रहा है। मुझे पन्द्रह दिसम्बर तक प्रवेश शुल्क जमा करके सारी औपचारिकताएँ पूरी कर लेनी हैं। महिला छात्रावास में रहने के लिए अलग कोशिश करनी पड़ेगी। मेरे अब्बू आजकल सैनफ्रांसिस्को में है, नेवी की नौकरी में होने से वे साल में एक बार ही घर आ पाते हैं। दूसरे-तीसरे महीने उनका मनीआर्डर जरूर आ जाता है। इधर ईद भी हो गई, लेकिन उनका न तो लैटर आया और न उन्होंने कोई पैसा ही भेजा। आप जानते हैं कि मैं अपने परिवार में सबसे बड़ी सन्तान हूँ, मेरी दोनों छोटी बहनें व एक छोटा भाई सभी मुझसे हर तरह की सहायता की उम्मीद रखते हैं। मैंने जब अपनी अम्मी से अपने रिज़ल्ट के बारे में बतलाया, तो बहुत खुश हुई और फिर उनकी खुशी एकदम ग़ायब हो गई. उनके चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ एक-एक करके उभरने लगीं। उन्होंने कहा, मैं तुम्हारी पढ़ाई के खर्चे कैसे बर्दाश्त कर पाऊँगी ! डॉक्टरी मत पढ़ो, सीधे-सीधे एम.एस.सी. की पढ़ाई पूरी कर लो और किसी गर्ल्स कॉलेज में कोशिश करके लेक्चरर बन जाओ। सारी लड़कियाँ डॉक्टरी थोड़े ही पढ़ती हैं, कुछ वकील बनती हैं, तो कुछ टीचर, कुछ सरकारी महकमों में क्लर्क बन जाती हैं, पता नहीं तुम्हें डॉक्टरी पढ़ने की व तुम्हारे अब्बू को तुम्हें डॉक्टरी पढ़ाने की धुन क्यों सवार है। अगर किसी तरह से ठोक-पीटकर मैं मेडिकल कॉलेज में तुम्हारा ऐडमिशन करा भी दूँ, तो तुम्हारी माहवारी फीस और मोटी-मोटी मेडिकल बुक्स के खरीदने का पैसा कहाँ से आएगा ! वक्त पर फीस न दे सकने से अगर तुम्हारी पढ़ाई बीच में बन्द हो गई, तो सारे रिश्तेदारों में मेरी बदनामी फैलेगी और लोगबाग न जाने क्या-क्या कहना शुरू कर देंगे। इससे बेहतर है तुम डॉक्टरी पढ़ने का अपना इरादा बदल दो और चाहो तो विवेक जी से राय ले लो, वह हर सनडे को लखनऊ आते हैं।
‘‘मैंने अम्मी की बातें सुनीं और फिर अफसोस में मुँह लटका कर बैठ गई। कुछ देर बाद अपनी सहेली रूप जैन के घर चली गई और उसके बड़े भाई नरेश भैया से अपनी परेशानी बतलाई। उन्होंने कहा कि इरफ़ाना, तुम मेरी बहन हो, मुझसे पैसे ले लो और रामपुर चली जाओ। लखनऊ से प्रातःकाल नौ बजे स्यालदा एक्सप्रेस छूटती है, जो रामपुर तीन बजे के लगभग पहुँच जाती है। रेलवे स्टेशन से सीधे रिक्शा करके विवेक जी के पास चली जाओ, यह उनका पता रहा और साथ में यह मेरी चिट्ठी। मैं रमेश भैया से सफर का खर्च व उनका पत्र लेकर आपकी सहायता प्राप्त करने यहाँ तक आ गई हूँ। यहाँ आने में मुझे ट्रेन लेट होने की वजह से बहुत देर हो गई है, इसके लिए मुझे दिली अफसोस है।’’
इंस्पेक्टर साहब ने जाहिद की ओर देखा, कुछ सोचते हुए बोले, ‘‘जाहिद, ऐसा करो, छोटेलाल, को भेजकर अपने मुख्तार बाबू को यहाँ बुलवा लो।’’ ‘‘बहुत अच्छी बात है,’’ कहते हुए जाहिद ने छोटेलाल को मुख्तार बाबू के घर भेज दिया। थोड़ी देर में वे आ गए।
यदाकदा सरकारी अनुदान से इस भवन की थोड़ी-बहुत मरम्मत करा दी जाती है और कमरों के फर्श और दीवालों के प्लास्टर को कामचलाऊ कर दिया जाता है, तथापि इसमें लगे लकड़ी के सारे दरवाज़े व खिड़कियाँ बेकार हो गए हैं जो मुश्किल से बन्द किए जाते हैं और मुश्किल से ही खोले जाते हैं।
भवन के निचले हिस्से में कार्यालय के कर्मचारियों व दैनिक आगन्तुकों के कारण दिन-भर भीड़ लगी रहती है, पर सायंकाल होते ही एक अजीब मरघटी सन्नाटा सारे भवन में छा जाता है। जाड़ों की शाम का तो पूछना ही क्या। इधर ऑफिस बन्द हुए, उधर छोटेलाल चौकीदार ने ताला-कुंजी लगा दी और बीच के लम्बे-चौड़े खुले आँगन में आग जलाकर हाथ सेकने बैठ, गया, दूसरे चौकीदार जाहिद को बुलाकर अपने पास बिठला लिया और साथ में ही भवन के बाहर जाने के लिए जो एकमात्र सँकरा रास्ता बना हुआ है, उसमें लगे पुराने दरवाज़ों को अन्दर से बन्द करके कुंडी में ताला डाल दिया। शाम के बाद यहाँ आता ही कौन है ! छत के ऊपर जो दो-तीन शिक्षा अधिकारी रहते हैं, वे सभी अकेले रहते हैं और परिवार से दूर होने के कारण वे भी शाम को जल्दी ही अपने-अपने कमरों में सिमट जाते हैं
आँगन के उत्तरी भाग में ऊपर जाने के लिए एक बड़ा ज़ीना बना हुआ है, जो थोड़ी सीढ़ियाँ चढ़ लेने के बाद दो ओर अलग-अलग बँट जाता है।
इसी ज़ीने से नीचे उतरता हुआ विवेक आँगन में आकर रुक गया, फिर कुछ सोचता हुआ अपनी कुंजी के गुच्छे को दाहिने हाथ की तर्जनी में नचाता हुआ बोला, ‘‘चौकीदार, इधर आओ, यह लो मेरे कमरों की चाभियों का गुच्छा, इसे अपने पास रख लो, मैं ज़रा खण्डेलवाल जी के घर जा रहा हूँ। वहाँ चाय पीकर सिनेमा देखने चला जाऊँगा। टेलीफोन कमरे के बाहर ही रखा हुआ है, अगर घण्टी बजे तो सुन लेना और बतला देना कि मैं देर में लौटूँगा। अगर लखनऊ से कोई फोन आ जाए तो सारी मैसेज नोट कर लेना, यानी किसका फोन है और मेरे लिए क्या सूचना दी जा रही है, हो सकता है कि मेरे सिरफिरे डायरेक्टर अपनी आदत मुताबिक रोज़ की तरह कुछ फालतू फण्ड की खबर देना चाहें।’’
यह कहकर विवेक ने अपने दस्ताने पहन लिए और तेज़ कदमों से बाहर निकल गया। छोटेलाल न द़रवाज़ा बन्द कर लिया और आग के पास आराम से बैठकर अपनी अधजली बीड़ी को पुनः सुलगा लिया और कहने लगा, ‘‘जाहिद भाई, इन अफ़सरों की माया निराली है। सबेरे छड़ी लेकर टहलने निकल जाएँगे, दिनभर या तो दौरा करेंगे या दफ्तर में बैठकर डाँट-फटकार लगाएँगे और फिर शाम को इधर-उधर कहीं चाय पीने और दावत खाने चले जाएँगे। यह नहीं कि अपने कमरे में चुपचाप बैठकर आराम करें और दिन-भर की अपनी थकान दूर करें। अब इन्हीं इंस्पेक्टर साहब को देखो, यह रात को दस बजे तक लौटेंगे, तब तुमसे चाय बनवाएँगे। चाय पीते ही तुम्हें बाज़ार भेजकर चार मीनार सिगरेट की डिब्बी मँगवाएँगे और फिर ग्यारह बजे रात तक टी. वी. देखते रहेंगे। यानी दफ्तर की चौकीदारी का मतलब यह भी है कि साहब लोगों के जा-बेजा सारे हुक्म तामील करते रहो।’’
यह सब सुनते हुए भी जाहिद मुस्कुराता रहा और केवल इतना बोला, ‘‘कुछ भी हो, मौजूदा इंस्पेक्टर साहब नेक-दिल इन्सान हैं, गरीबों पर मेहरबान हैं, छोटे-बड़े–सभी से इन्सानी सलूक बरतते हैं, ऐसे अफ़सरान मुश्किल से मिलते हैं।’’
अभी दोनों चौकीदारों की बातचीत का दौर शुरू ही हुआ था, कि बाहर से किसी ने कॉल-बेल बजा दी। छोटेलाल एक हाथ में अपना बल्लम थामे हुए व दूसरे हाथ में टॉर्च लिए हुए दरवाज़े पर पहुँच गया, किवाड़ खोले और बाहर बुर्का पहने हुए एक नवयुवती को देखा, फिर पूछा, ‘‘क्या बात है ?’’ ‘‘मुझे इंस्पेक्टर साहब से मिलना है’’ उसने उत्तर दिया। ‘‘अब दफ्तर बन्द हो गया है, कल आइएगा, इंस्पेक्टर साहब टहलने गए हैं, दस बजे रात तक लौटेंगे।’’ छोटेलाल ने उत्तर दिया। नवयुवती ने अपनी बात जारी रखी, ‘‘ठीक है, मैं जानती हूँ कि दफ्तर बन्द हो गया है और तुम इस समय चौकीदारी कर रहे हो, पर मुझे जरूरी काम से इंस्पेक्टर साहब से मिलना है। मैं लखनऊ से आ रही हूँ। मेरी ट्रेन लेट हो गई है, बड़ी मुश्किल से पूछते-पाछते यहाँ तक आ सकी हूँ। अगर ट्रेन अपने नियत समय से आ जाती तो मैं ऑफिस टाइम में ही उनसे मिलकर लखनऊ वापस चली जाती। मेरा यहाँ पर अपना कोई नहीं है, मेरे लिए रामपुर बिल्कुल अजनबी जगह है। दूसरे, तुम्हारे साहब के साथ हमारे घरेलू ताल्लुक़ात हैं। ऐसी हालत में तुम उनके दफ्तर का कमरा खोल दो, मैं वहीं बैठकर उनके लौटने का इन्तजार करूँगी, उनसे मिलकर बहुत ज़रूरी बात करूँगी और फिर रात में ठहरकर सवेरे की पहली ट्रेन से लखनऊ लौट जाऊँगी।’’ उक्त बुर्काधारी नवयुवती ने अपना चेहरा बेनकाब करते हुए बड़ी याचनापूर्ण दृष्टि से छोटेलाल की ओर देखा।
छोटेलाल की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था, वह किंकर्तव्यविमूढ़ था। कभी वह सोचता कि उस महिला को बैरंग वापस कर दिया जाए और फिर फौरन सोचने लगता कि अब अँधेरा होने लगा है, रामपुर की सूनी सड़कों पर उसे वापस कर देना किसी अनिष्ट का कारण न बन बैठे। वह पीछे लौट गया और जाहिद को अपने साथ बाहरी दरवाज़े तक बुला लाया। जाहिद को देखते ही उस नवयुवती ने उससे भी अपनी बातें दुहरा दीं।
जाहिद वयोवृद्ध और दुनिया देखा इन्सान था, उसने प्रश्न किया, ‘‘मोहतरमा, आपका नाम क्या है ?’’
‘‘इरफ़ाना।’’
‘‘ठीक है, आप अन्दर तशरीफ़ ले आइए, मैं साहब के ऑफिस के कमरे को खोलकर आपको बिठलाए दे रहा हूँ, आइए, मेरे साथ बेफिक्र होकर चली आइए।’’ जाहिद ने इंस्पेक्टर साहब का कमरा खोल दिया, मर्करी लाइट जला दी, हीटर भी लगा दिया। साहब की कुर्सी के सामने रखी हुई कुर्सियों में से बीच की कुर्सी पर बिठला, दिया, छोटेलाल को पैसे एक छोटी केतली में चाय व दो छोटे बिस्कुट मँगवाकर इरफ़ाना के सामने शिष्टाचारपूर्वक पेश करते हुए कहा, ‘‘आप चाय पीजिए, मैं फोन करके साहब को बुलवाए देता हूँ।’’ जाहिद ने खण्डेलवाल साहब के घर फोन मिलाया, संयोग से इंस्पेक्टर साहब ने रिसीबर स्वयं उठा लिया। जाहिद ने उनसे सारी स्थिति बतला दी। अभी-अभी चाय खत्म हुई थी और वह स्वयं अपने आवास पर लौटने का मूड बना रहे थे। रामपुर में जाड़ों की शाम काफी ठण्डी होती है, कभी-कभी तो ठण्डी हवा की लहर-सी आ जाती है। सभी रिक्शेवाले कानों में मफलर बाँधते व हाथों में दस्ताने पहने रहते हैं। ऑफिसर्स भी संकोचपूर्वक मफलर का प्रयोग कर लेते हैं, वे दस्ताने भले न पहनें। इंस्पेक्टर साहब ने अपनी पूरी आस्तीन का नया पुलोवर कमर से नीचे की ओर खींचा, कानों में घर का बुना नया मफलर लपेटा और खण्डेलवाल साहब से अनुमति लेकर रिक्शे पर बैठकर तोपखाना रोड के लिए वे चल पड़े। पुराने मुर्तजा स्कूल के फाटक पर उतरकर अपने ऑफिस के अन्दर चलने लगे। जाहिद बाहरी दरवाज़े पर ही खड़ा उनके लौटने की प्रतीक्षा आतुरतापूर्वक कर रहा था। इंस्पेक्टर साहब ने अपने ऑफिस रूम की लाइट जलती देखी, तो जाहिद से इसका कारण ज्ञात किया और फिर तुरन्त अन्दर जाकर अपनी चेयर पर बैठते हुए जाहिद से कहा कि तुम भी यहीं पर खड़े रहो। उन्होंने इरफ़ाना को देखा और आश्चर्य-मिश्रित कौतूहल से प्रश्न किया–
‘‘अरे इरफ़ाना ! तुम इस समय लखनऊ से बेवक्त कैसे आ गई ? घर में सब ठीक तो हैं ? तुम्हारे साथ में कौन आया है ? तुमने यहाँ यह चाय अपने पैसों से क्यों मँगाई है ? तुमने अपने आने की सूचना फोन द्वारा क्यों नहीं दी ? मैं तुम्हारे लिए रेलवे स्टेशन पर गाड़ी भेज देता। तुम्हें स्टेशन से तोपखाना रोड तक आने में काफी परेशानी झेलनी पड़ी होगी। तुम्हें मेरे ऑफिस का पता कैसे ज्ञात हुआ ?’’
इरफ़ाना ने अपने चेहरे से नकाब फिर से हटाई, विवेक की ओर आत्मीयता की दृष्टि डालते हुए अस्फुट स्वरों में बोली, ‘इस बार मेरा सी. पी. एम. टी. में चयन हो गया है। मुझे मेरठ मेडिकल कॉलेज में प्रवेश प्राप्त करना है। लखनऊ या कानपुर मिल जाता तो सारी परेशानियाँ अपने आप खत्म हो जाती। कल के अखबारों में रिज़ल्ट निकला है, आप जानते ही होंगे कि पहले की सी. पी. एम. टी. परीक्षाएँ निरस्त कर दी गई थीं, कुछ केन्द्रों पर पेपर्स आउट हो गए थे। दुबारा परीक्षाएँ हुई, इतना समय लग गया, अब नवम्बर का अन्तिम सप्ताह भी समाप्त हो रहा है। मुझे पन्द्रह दिसम्बर तक प्रवेश शुल्क जमा करके सारी औपचारिकताएँ पूरी कर लेनी हैं। महिला छात्रावास में रहने के लिए अलग कोशिश करनी पड़ेगी। मेरे अब्बू आजकल सैनफ्रांसिस्को में है, नेवी की नौकरी में होने से वे साल में एक बार ही घर आ पाते हैं। दूसरे-तीसरे महीने उनका मनीआर्डर जरूर आ जाता है। इधर ईद भी हो गई, लेकिन उनका न तो लैटर आया और न उन्होंने कोई पैसा ही भेजा। आप जानते हैं कि मैं अपने परिवार में सबसे बड़ी सन्तान हूँ, मेरी दोनों छोटी बहनें व एक छोटा भाई सभी मुझसे हर तरह की सहायता की उम्मीद रखते हैं। मैंने जब अपनी अम्मी से अपने रिज़ल्ट के बारे में बतलाया, तो बहुत खुश हुई और फिर उनकी खुशी एकदम ग़ायब हो गई. उनके चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ एक-एक करके उभरने लगीं। उन्होंने कहा, मैं तुम्हारी पढ़ाई के खर्चे कैसे बर्दाश्त कर पाऊँगी ! डॉक्टरी मत पढ़ो, सीधे-सीधे एम.एस.सी. की पढ़ाई पूरी कर लो और किसी गर्ल्स कॉलेज में कोशिश करके लेक्चरर बन जाओ। सारी लड़कियाँ डॉक्टरी थोड़े ही पढ़ती हैं, कुछ वकील बनती हैं, तो कुछ टीचर, कुछ सरकारी महकमों में क्लर्क बन जाती हैं, पता नहीं तुम्हें डॉक्टरी पढ़ने की व तुम्हारे अब्बू को तुम्हें डॉक्टरी पढ़ाने की धुन क्यों सवार है। अगर किसी तरह से ठोक-पीटकर मैं मेडिकल कॉलेज में तुम्हारा ऐडमिशन करा भी दूँ, तो तुम्हारी माहवारी फीस और मोटी-मोटी मेडिकल बुक्स के खरीदने का पैसा कहाँ से आएगा ! वक्त पर फीस न दे सकने से अगर तुम्हारी पढ़ाई बीच में बन्द हो गई, तो सारे रिश्तेदारों में मेरी बदनामी फैलेगी और लोगबाग न जाने क्या-क्या कहना शुरू कर देंगे। इससे बेहतर है तुम डॉक्टरी पढ़ने का अपना इरादा बदल दो और चाहो तो विवेक जी से राय ले लो, वह हर सनडे को लखनऊ आते हैं।
‘‘मैंने अम्मी की बातें सुनीं और फिर अफसोस में मुँह लटका कर बैठ गई। कुछ देर बाद अपनी सहेली रूप जैन के घर चली गई और उसके बड़े भाई नरेश भैया से अपनी परेशानी बतलाई। उन्होंने कहा कि इरफ़ाना, तुम मेरी बहन हो, मुझसे पैसे ले लो और रामपुर चली जाओ। लखनऊ से प्रातःकाल नौ बजे स्यालदा एक्सप्रेस छूटती है, जो रामपुर तीन बजे के लगभग पहुँच जाती है। रेलवे स्टेशन से सीधे रिक्शा करके विवेक जी के पास चली जाओ, यह उनका पता रहा और साथ में यह मेरी चिट्ठी। मैं रमेश भैया से सफर का खर्च व उनका पत्र लेकर आपकी सहायता प्राप्त करने यहाँ तक आ गई हूँ। यहाँ आने में मुझे ट्रेन लेट होने की वजह से बहुत देर हो गई है, इसके लिए मुझे दिली अफसोस है।’’
इंस्पेक्टर साहब ने जाहिद की ओर देखा, कुछ सोचते हुए बोले, ‘‘जाहिद, ऐसा करो, छोटेलाल, को भेजकर अपने मुख्तार बाबू को यहाँ बुलवा लो।’’ ‘‘बहुत अच्छी बात है,’’ कहते हुए जाहिद ने छोटेलाल को मुख्तार बाबू के घर भेज दिया। थोड़ी देर में वे आ गए।
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